रावेल पुष्प का सम्मान

रावेल पुष्प का सम्मान

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चितरंजन से पारो शैवलिनी।

मेरी बांग्लादेश यात्रा।

अरे नहीं मैं तो यहाँ कभी गया ही नहीं। दरअसल, ये उस किताब का नाम है जिसे मेरे परम मित्र रावेल पुष्प जी ने लिखा है। पन्द्रह फरवरी 2025 को पुष्प जी चित्तरंजन आये थे। रूपनारायणपुर के नान्दनिक हाल में आयोजित एक सम्मान समारोह में शामिल होने। आने के पूर्व पुष्प जी का फोन आया, पारो मैं पन्द्रह की शाम चित्तरंजन आ रहा हूँ, मिलो। उन्होंने ये भी बताया कि उनके साथ कोलकाता से एक और रचनाकारनी (शब्द जचे तो शाबासी देना) डाॅक्टर शुभ्रा उपाध्याय पहली बार चित्तरंजन आ रही हैं। पन्द्रह की शाम मैं चित्तरंजन स्टेशन समय से पहले ही पहुँच गया।मेरे साथ मेरा नाती अनिल भी था। स्टेशन पर मुझे देखते ही पुष्प जी ने एकदम से अपने सीने में साट लिया मुझे।अनिल ने भी शिष्टाचार का पालन करते हुए दोनों अतिथियों का चरण-स्पर्श किया। स्टेशन पर मैंने शाम की चाय पिलवायी और दोनों को लेकर सीधे राइटर्स कॉर्नर चित्तरंजन के कार्यालय पहुँचा जो मेरे ही क्वार्टर में है। वहां मेरी अर्धांगनी गौरी जिसे मैं प्यार से सुनयना और गुस्सा में मोटी कहकर पुकारता हूँ, ने गर्मजोशी से स्वागत किया और पुनः चाय की चुस्कियां लेते हुए दोनों का साक्षात्कार रिकार्ड करने में जुट गयी। यहां कैमरा थामा अनिल ने। हमलोगों की बातचीत और भी जबरदस्त हो गई क्योंकि श्रोताओं में मेरी अर्धांगनी की एक सखि और सखा दोनों ही शामिल रही जिन्होंने ना सिर्फ पुष्प जी को ही गौर से सुना अपितु शुभ्रा उपाध्याय की बातें और साथ में उनकी लोकगीतों का भी भरपूर रसास्वादन किया । कैमरे का स्वीच आफ कर मैं दोनों को लेकर डाबर मोड़ के लिए निकल पड़ा। जहाँ, अरजीत ज्वारकार के यहाँ पहुँचा। वहां भी बेहद गर्मजोशी के साथ मेरा भी स्वागत हुआ। अरिजीत की पत्नी ने जैसे पूरा स्नेह उड़ेल दिया हमलोगों पर। खासकर मुझ पर। क्योंकि, पुष्प-शुभ्रा तो उनके मेहमान थे ही मैं भी मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज़ पर देवदास की पारो की तरह चिपका रहा। रात दस बजे चित्तरंजन के लिए अन्तिम बस पकड़ कर वापस क्वार्टर लौटा।अगली सुबह लहमा के उस कार्यक्रम में जाने से मैंने मना कर दिया क्योंकि लहमा की तरफ से मुझे आमंत्रण नहीं मिला था। मगर, पुष्प जी और शुभ्रा जी के कहने पर और अरिजीत के मनौती पर मुझे लहमा के आयोजन का हिस्सा बनना पड़ा। वहाँ भी मेरी उपस्थिति ने और विशेष आग्रह पर मैंने स्वरचित कविता का पाठ कर जब मंच से नीचे उतरा तो मुझे अधिकांश रचनाकारों ने गले से लगाकर शाबासी दी। मैं भी सभी का स्नेह, प्यार और दुलार को सहेजता रहा।

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