धरती, नदी, पानी के संकट से मानव और प्रकृति खतरे में

धरती, नदी, पानी के संकट से मानव और प्रकृति खतरे में

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भागलपुर ब्यूरो (कुंदन राज)।

भागलपुर। गंगा मुक्ति आंदोलन और स्नातकोत्तर गांधी विचार विभाग के संयुक्त तत्वावधान में गांधी विचार विभाग के सत्याग्रह कक्ष में “धरती, नदी, पानी संवाद” विषय पर संगोष्ठी का आयोजन हुआ। संगोष्ठी की अध्यक्षता विभाग के अध्यक्ष डॉ अमित रंजन सिंह ने की।

संगोष्ठी का संचालन प्राध्यापक डॉ. उमेश प्रसाद नीरज ने धरती, नदी और पानी के संकट को जीवन का संकट बताया। उन्होंने बताया कि औद्योगिक क्रांति के बाद विकास की गति और नीति ने पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन किया है। परिणाम स्वरुप पर्यावरण प्रदूषण और नदी, पानी तथा धरती के अस्तित्व पर गहरा संकट छाया है। इस दिशा में सामूहिक प्रयास की जरूरत है।

वरिष्ठ समाज सेवी और लोक समिति के उदय भाई ने बतया कि धरती पर मात्र तीन प्रतिशत पानी है और इसका अधिकांश भाग पीने योग्य नहीं है। नदी, नाला, पोखर, पोखरा सूख रहा है, ये अतिक्रमित हो रहा है।स्थानीय स्तर पर इसके मुक्ति हेतु प्रयास की जरूरत है, आज सबका जीवन संकट में पड़ गया।

ललन जी ने इस संकट के लिए कार्य योजना बनाने पर बल दिया। प्रो.डॉ. योगेंद्र, पूर्व विभागाध्यक्ष हिंदी ने इस संकट के समाधान के लिए एक नए जीवन व्यवस्था के बारे में सोचने की जरूरत बताई।
संगोष्ठी के मुख्य वक्ता प्रो. डॉ मनोज कुमार पूर्व विभाग विभागाध्यक्ष सह महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के सेवानिवृत कुलपति ने विस्तार से अपनी बातें रखते हुए कहा कि आज से 24 – 25 वर्ष पूर्व भागलपुर के दक्षिण में चांदन नदी और उसके सहायक नदियों की स्थिति का अध्ययन किया गया था, नदियों के बालू भर जाने के कारण पारंपरिक सिंचाई व्यवस्था के ध्वस्त होने की स्थिति को देखा था। आज वही बालू के अत्यधिक उठाव से नदियां इतनी गहरी हो गई है कि सिंचाई के लिए बने पौराणिक नालों तक पानी नहीं पहुंच पाती है। इसलिए नदी और नालों के द्वारा खेत की सिंचाई नहीं हो पाती है। इस दिशा में गांधी विचार विभाग के विभाग के शोध छात्र राजीव कुमार द्वारा नदियों के अध्ययन अपने शोध के लिए कर रहे हैं। नदी इलाकों के ग्रामीण के साथ कई बैठक की। गांधी शांति प्रतिष्ठान केंद्र के उपाध्यक्ष होदा साहब ने धरती, नदी, पानी के सवाल को जीवन का सवाल बताया और यह सवाल केवल स्थानीय नहीं बल्कि वैश्विक सवाल है। जीवन बचाना है तो इस सवाल का जवाब ढूंढना पड़ेगा। उदय जी ने विषय को विस्तार से रखते हुए कहा कि सभ्यता के विकास क्रम में औद्योगिक क्रांति के बाद जो विकास की नीति अपनाई गई उसके द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया गया। आज पिछले 200 वर्षों में धरती का ताप 1 से 2 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ गया, जिससे जलवायु परिवर्तन जैसी समस्या सामने उत्पन्न हुई है। इसके वजह से फसल चक्र और उत्पादन पर नाकारात्म प्रभाव पड़ा है, व्यापारिक कृषि फसल उत्पादन में अत्यधिक पानी का प्रयोग, फैक्ट्री में पानी का अत्यधिक प्रयोग से पानी में सीमित भंडारण का खतरा बढ़ गया है।आज नदियां सुख रही है, धरती पर नदी, पानी को बचाने का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया।ललन जी इस सवाल के लिए कार्य योजना क्या होगी इस पर विचार करने की जरूरत पर बल दिया। इस अवसर पर विनोद जी, अर्जुन जी, भानु उदय, मंजर आलम, नवज्योति पटेल, मोहम्मद जाकिर हुसैन, शमिता कुमारी, शिवांगी, पावर आलम, रेखा कुमारी, संजय कुमार, राजीव कुमार, अभिनंदन कुमार यादव, गौतम कुमार, जयकरण कुशवाहा, कैलाश कुमार पंडित आदि ने भी अपनी बातें रखी।

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