बुरे समय की आंधियां !

बुरे समय की आंधियां !

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कविता
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तेज प्रभाकर का ढले, जब आती है शाम !
रहा सिकन्दर का कहाँ, सदा एक सा नाम !!
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उगते सूरज को करे, दुनिया सदा सलाम !
नया कलेंडर साल का, लगता जैसे राम !!
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तिनका-तिनका उड़ चले, छप्पर का अभिमान !
बुरे समय की आंधियां, तोड़े सभी गुमान !!
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तिथियां बदले पल बदले, बदलेंगे सब ढंग !
खो जायेगा एक दिन, सौरभ तन का रंग !!
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पाकर भी कुछ ना मिले, होकर जिम्मेवार !
कितना धोखेबाज है, सौरभ ये किरदार !!
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प्रेम दिया या दर्द हो, सबका है आभार !
जीवन पथ पर है तभी, मिला मुझे विस्तार !!
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हम पत्तों को सींचते, पर जड़ है बीमार !
सौरभ कैसे हो बता, ऐसे वृक्ष सुधार !!
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✍ – डॉo सत्यवान सौरभ,
रिसर्च स्कॉलर,कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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