Charchaa a Khas
डॉ. विभुरंजन
मानव के आदि काल से कहानी कहने, सुनने, सुनाने की प्रवृत्ति चली आ रही है। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथों में कहानी का महत्व प्रायः देशों में है। भारतीय वांगमय में वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश तथा पुरानी हिन्दी में किसी न किसी स्वरूप में कहानी विद्यमान है, इसके अतिरिक्त पुराणों, उपनिषदों, ब्राह्मणों, रामायण, महाभारत, पालि जातक, तथा पंचतंत्र आदि में कहानियों का भंडार भरा पड़ा है। इन सभी कहानियों में उपदेशात्मक अथवा धार्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। आधुनिक अर्थ में इन्हें कहानी नहीं कहा जा सकता है।
कहानी शब्द की व्याख्या
‘कहानी’ शब्द संस्कृत कथानिका प्राकृत कहाणिआ, सिंहली-मराठी कहानी से विकसित हुआ है जिसका अर्थ मौखिक या लिखित कल्पित या वास्तविक, तथा गद्य या पद्य में लिखी हुई कोई भाव प्रधान या विषय प्रधान घटना, जिसका मुख्य उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन करना, उन्हें कोई शिक्षा देना अथवा किसी वस्तु स्थिति से परिचित कराना होता है। इसका अंग्रेजी पर्याय ‘स्टोरी’ है।
आधुनिक हिन्दी कहानी का प्रारंभ उन्नीसवीं सदी में हुआ जिसे कहानी या कथा कहते हैं इसका शाब्दिक अर्थ ‘कहना’ है। इस अर्थ के अनुसार जो कुछ भी कहा जाये कहानी है। किंतु विशिष्ट अर्थ में किसी विशेष घटना के रोचक ढंग से वर्णन को ‘कहानी’ कहते हैं। ‘कथा’ एवं ‘कहानी’ पर्यायवाची होते हुए भी समानार्थी नहीं हैं। दोनों के अर्थों में सूक्ष्म अंतर आ गया है। कथानक व्यापक अर्थ की प्रतीति कराता है इसमें कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी आदि का समावेश हो जाता है। कथा साहित्य के अंतर्गत मुख्य रूप से कहानी एवं उपन्यास को ही माना जाता है जबकि कहानी के अंतर्गत कहानी और लघु कथाएं ही आती हैं।
यूरोप में विकसित कहानी का स्वरूप अंग्रेजी और बंगला के माध्यम से बीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत आया। प्राचीन कहानी एवं आधुनिक कहानी के स्वरूप में पर्याप्त अंतर है। आधुनिक कहानी जनसाधारण मनुष्य जीवन से संबंधित लौकिक यथार्थवादी, विचारात्मक धरती के सुख तक सीमित है।
हिन्दी की प्रथम कहानी
हिन्दी की प्रथम कहानी किसे माना जाए इस विषय में पर्याप्त मतभेद है। लगभग दर्जन भर कहानियां प्रथम कहानी की होड़ में सम्मिलित हैं जिन्हें आलोचक मान्यता प्रदान करते हैं।
सन् 1803 ई. में लिखी गई, हिन्दी गद्य में कहानी शीर्षक से प्रकाशित होने वाली प्रथम रचना ‘रानी केतकी की कहानी’ है। इस कहानी के लेखक इंशा अल्ला खां हैं। डॉ. राम रतन भटनागर ने ‘रानी केतकी की कहानी’ को हिन्दी प्रथम कहानी स्वीकारा है। किंतु इसकी संयोग बहुलता, अतिमानवीयता के कारण इसे प्रथम कहानी के रूप में नहीं स्वीकारा जा सकता है क्योंकि ये विशेषताएं आधुनिक कहानी में क्षम्य नहीं है। इसके विषय में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन समीचीन प्रतीत है कि यह नई परंपरा की प्रारंभिक कहानी नहीं है, बल्कि मुस्लिम प्रभावापन्न परंपरा की अंतिम कहानी है।
डॉ. बच्चन सिंह ने किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘प्रणायिनी परिणय’ (सन् 1887 ई.) को हिन्दी की प्रथम कहानी माना है जबकि स्वयं इसके लेखक ने इसे उपन्यास कहा है। कारण यह बताया गया है कि सन् 1900 ई. तक कथा साहित्य को उपन्यास कहने की परिपाटी थी। इसलिए यह भी प्रथम कहानी नहीं है। क्योंकि इसका विभाजन सात निष्कर्ष में किया गया है। प्रत्येक निष्क को अलग खंड मान लेने पर कहानी कई खंडों में विभक्त प्रतीत होती है। इस तरह खंडों में विभाजित कर कहानी लिखने की परिपाटी चलती रही है। प्रत्येक निष्कर्ष या खंड के प्रारंभ में श्लोक बद्ध नीति कथन हैं जो कहानी के रूप विन्यास में बाधक सिद्ध होते हैं। इस कहानी के रूप बंध पर आख्यान पद्धति का पूर्ण प्रभाव हैं। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली में केन्द्रीय भाव प्रगाढ़ प्रेम की सुखद परिणति दिखलाई गई है।
रैवरेंट जे. न्यूटन कृत ‘जमींदार का दृष्टांत’ तथा अनाम ‘छली अरबी की कथा’ नामक दो कहानियां अलीगढ़ से प्रकाशित ‘शिलापंख’ मासिक के ‘कल की कहानी’ स्तंभ में प्रकाशित देखकर यह अनुमान लगाया किंचित ये ईसाई धर्म प्रचार हेतु लिखी गई है। ‘शिलापंख’ के संपादक राजेंद्र गढ़वालिया ने सन् 1871 ई. में प्रकाशित इस कहानी को अब तक प्राप्त कहानियों में प्राचीनतम माना है। प्राचीनतम होकर भी प्रथम कहानी नहीं क्यों धर्म प्रचार हेतु लिखी गई है।
डॉ. सुरेख सिन्हा गोस्वामी कृत ‘इन्दुमती’ को प्रथम कहानी मानने पर बल देते हुए लिखा है, “प्रथम कहानी का निर्धारण समय क्रम से होना चाहिए न कि कथानक, शिल्प, विचार धारा, या अन्य किसी दृष्टिकोण से।”
‘रानी केतनी की कहानी’ के पश्चात राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद कृत ‘राजा भोज का सपना’; भारतेंहु हरिश्चन्द्र कृत ‘अद्भुत अपूर्व स्वप्न’ का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें कहानी की सी रोचकता विद्यमान है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक ढंग की कहानियों का आरंभ ‘सरस्वती पत्रिका’ के प्रकाशन काल से स्वीकारा है। ‘सरस्वती’ में प्रकाशित कहानियां इस प्रकार हैं-
इंदुमती – किशोरी लाल गोस्वामी (1900 ई.)
गुलबहार – किशोरी लाल गोस्वामी (1902 ई.)
प्लेग की चुडैल – मास्टर भगवान दास (1902 ई.)
ग्यारह वर्ष का समय – राम चन्द्र शुक्ल (1903 ई.)
पंडित और पंडितानी – गिरजादत्त बाजपेयी (1903 ई.)
दुलाई वाली – बंग महिला (1907 ई.)
ये सभी कहानियां ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थीं। इस प्रकार प्रथम कहानीकार किशोरी लाल गोस्वामी तथा प्रथम कहानी ‘इंदुमती’ प्रमाणित होती है। ‘इंदुमती’ की चर्चा प्रायः प्रत्येक समीक्षक ने की है। इस पर टेम्पेस्ट की छाया मानकर इस की मौलिकता पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया। रामचन्द्र शुक्ल ‘इंदुमती’ को ही प्रथम कहानी मानते हैं।
रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है, “यदि ‘इंदुमती’ किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है इसके उपरांत ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और ‘दुलाईवाली’ का नंबर आता है।”
सुरेश सिन्हा को शुक्ल के कथन में चालाकी की गंध आती है। उन्हें लगता है कि इंदुमती को अनूदित करार देकर अपनी कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। किंतु यह प्रमाणित हो चुका है कि ‘इंदुमती’ मौलिक रचना नहीं है। डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल शिल्प की दृष्टि से रामचन्द्र शुक्ल कृत ‘ग्यारह वर्ष का समय’ (सन् 1903) हिन्दी की प्रथम कहानी है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इसे आधुनिकता के लक्षण से युक्त माना है।
देवी प्रसाद वर्मा, ओंकार शरद और देवेश ठाकुर आदि समीक्षकों ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित माधव राव सप्रे कृत ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ (सन् 1901) को हिन्दी की प्रथम कहानी का श्रेय दिया है। देवेश ठाकुर के अनुसार काल क्रमानुसार अपने समय के यथार्थ परिवेश से जुड़ी है। शिल्प की दृष्टि से सहजता, सरलता तथा भाषा की शुद्धता इसमें है। अतः जब तक इस दिशा में और अधिक शोध न हो जाए मान लेना चाहिए कि माधव राव सप्रे कृत ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ हिन्दी की प्रथम कहानी है। आर्थिक चेतना की कहानी होने के कारण यह आधुनिक अर्थमूला कहानियों की पहचान की पहली हिन्दी कहानी है। ‘दुलाईवाली’ (सन् 1907 ई.) को यथार्थवादी चित्रण की सर्वप्रथम रचना माना है। किंतु वंग महिला का नाम नहीं ज्ञात है।
प्रो. वासुदेव ‘इंदु’ में प्रकाशित ‘ग्राम’ (1911 ई.) को हिन्दी की पहली कहानी का गौरव प्रदान करते हैं। प्रसाद की यह पहली कहानी है।
शिवदान सिंह चौहान के विचार में हिन्दी कहानी का श्रीगणेश प्रसाद और प्रेमचन्द से माना जाना चाहिए। राजेन्द्र यादव चन्द्रधर शर्मा गुलेरी कृत – ‘उसने कहा था’ (1916) को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी मानते हुए इसी से आधुनिक हिन्दी कहानी का श्रीगणेश मानना चाहिए अब तक ‘दुलाई वाली’ को ही प्रथम कहानी माना जाता है। ‘जमींदार का दृष्टांत’ ( 1871 ई.) को अंग्रेजों की लिखी कहानी को प्रथम श्रेय नहीं मिलना चाहिए।
‘दुलाईवाली’ या ‘ग्यारह वर्ष का समय’ को हिन्दी की प्रथम कहानी का श्रेय मिलना श्रेयस्कर है।
हिन्दी कहानी का विकास
हिन्दी कहानी के विकास में प्रेमचन्द केन्द्र बिन्दु हैं जिन्हें आधार बनाकर प्रेमचन्द पूर्वोत्तर, प्रेमचन्द, प्रेमचन्द परवर्ती युग के विभाग द्वारा संपूर्ण कहानी काल का विवेचन किया जाता रहा है। यह कहना कि प्रसाद का महत्व खो जाता है उनका युग नहीं बन पाता है। वे मूलतः कवि हैं उनका युग माना जा सकता है माना जाए। चरणों में अध्ययन वैज्ञानिक न होते भी आसान है किंतु सन् 1950 ई. से आज तक एक ही चरण नहीं माना जाना चाहिए। लगभग पांच चरणों में कहानी के विकास को विभाजित किया जाना श्रेयस्कर प्रतीत होता है।
प्रथम चरण (सन् 1870 – 1915 ई.)
द्वितीय चरण (सन् 1916 – 1935 ई.)
तृतीय चरण (सन् 1936 – 1955 ई.)
चतुर्थ चरण (सन् 1956 – 1975 ई.)
पंचम चरण (सन् 1976 से आज तक)
‘प्रणयिनी परिणय’ में राजाराम शास्त्री की सहायता करता है। परोपकारी वृत्ति के आदर्श के साथ राज्य कर्मचारियों की धन लिप्सा के यथार्थ की ओर भी संकेत किया गया है – “ऐसी चपलता, क्या राज्य कर्मचारी ऐसे-ऐसे भयंकर लालच से बच सकते हैं? फिर तब क्या अनर्थ न्यून होने की संभावना हो सकता है? यदि इस समय मैं न होता तो इधर न्यायाधीश अवश्य ही घूस लेकर इसे छोड़ देते।” ‘ग्यारह वर्ष का समय’ में प्रेम के आदर्श की अभिव्यक्ति हुई है – इस अदृष्ट प्रेम का कर्म और कर्त्तव्य से घनिष्ठ संबंध है। इसकी उत्पत्ति केवल सदाशय और निःस्वार्थ हृदय में ही हो सकती है।
इस कालावधि की अधिकांश कहानियों में भावुकता और संयोग का बाहुल्य दृष्टिगोचर होता है। ‘ग्यारह वर्ष का समय’ में दीर्घ काल के उपरांत पति पत्नी का मेल एकाएक एक टूटे फूटे निर्जन भवन में हो जाता है। ‘इंदुमती’ में भी संयोग से ही चन्द्रशेखर इंदुमती का अतिथि बन जाता है। राधिका रमण सिंह कृत ‘कानों में कंगना’ में गहरी भावुकता के दर्शन होते हैं। अधिकांश कहानियां अंग्रेजी एवं बंगला कहानियों से प्रभावित हैं। कहानी शिल्प अति अव्यवस्थित है मात्रा ‘छली अरब की कथा’ और ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ शिल्प की दृष्टि से कसी हुई कहानियां हैं।
यद्यपि इन कहानियों का महत्व नहीं है। इतना अवश्य है कि अब तक कहानीकारों के एक मंडल का गठन हो चुका था तथा पत्रा पित्राकाओं के माध्यम से कहानी एक लोकप्रिय विधा का रूप धारण करती जा रही थी।
सन् 1919 ई. में उनकी हिंदी रचित प्रथम कहानी ‘पंच परमेश्वर’ प्रकाशित हुई। उनकी कहानियों में इसके अतिरिक्त ‘आत्माराम’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘रानी सारंघा’, ‘वज्रपात’, ‘अलग्योझा’, ‘ईदगाह’, ‘पूस की रात’, ‘सुजान भक्त’, ‘कफन’, ‘पंडित मोटे राम’ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। प्रेमचन्द की कहानियों में जन साधारण के जीवन की सामान्य परिस्थितियों, मनोवृत्तियों एवं समस्याओं का मार्मिक चित्रण हुआ है। वे साधारण से साधारण बात को भी मर्मस्पश्री रूप में प्रस्तुत करने की कला में निपुण कहानीकार थे। उनकी शैली सरल स्वाभाविक एवं रोचक है। जो पाठक के हृदय पर सीधा प्रहार करती है। उनकी सभी कहानियां सोद्देश्य हैं – उनमें किसी न किसी विचार या समस्या का अंकन हुआ है किन्तु इससे उनकी रागात्मकता में कोई न्यूनता नहीं आई है।
भाव-विचार, कला-प्रचार का सुंदर समन्वय किस प्रकार किया जा सकता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रेम चंद का कहानी साहित्य है। द्वितीय चरण में हिन्दी कहानी दो विशिष्ट धाराओं में विभक्त होकर चलती है-
प्रेमचन्द और उनके सहयोगी कहानीकारों में समकालीन यथार्थ की आदर्शात्मक परिणति मिलती है। अपनी कहानी यात्रा के अंतिम चरण में प्रेमचंद ने स्वयं को आदर्श के मोह से अलग कर दिया था लेकिन सुदर्शन, विश्वंभर नाथ शर्मा ‘कौशिक’ ज्वाला दत्त शर्मा आदि बराबर आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहानियां लिखते रहे। इस दृष्टि से कौशिक की ‘रक्षा बंधन’, ‘सुदर्शन की एलबम’, ‘हार जीत’ और ‘एथेन्स का सत्यार्थी’ उल्लेखनीय कहानियां हैं। प्रेमचन्द की कहानी यात्रा के तीन मोड़ माने जा सकते हैं।
प्रेमचन्द की कहानियों में जहां एक ओर युग का सच्चा चित्राण है, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक संदर्भों के विश्लेषण की कोशिश है वहीं दूसरी ओर प्रेम, सहानुभूति, तपस्या, सेवा आदि महनीय मूल्यों का जोरदार समर्थन उनमें है। अधिकांश कहानियों में प्रेम चंद ने जन साधारण के जीवन को उसी की भाषा में उपस्थित किया है। वे संभवतः पहले कहानीकार हैं जिनकी कहानियों में ग्रामीण जीवन अपनी समूची शक्ति और सीमा के साथ उभरा है। डॉ. भगवत स्वरूप मिश्र ने लिखा है, “मानव स्वभाव के परिचय, युगबोध, विषय क्षेत्रा के विस्तार, कहानी कला के उत्कर्ष आदि की दृष्टि से प्रेमचन्द स्कूल का एक भी कहानीकार प्रेमचन्द की गरिमा को नहीं पहुंच सका।”
प्रसाद की कहानियों में वस्तुगत वैविध्य बिलकुल न हो, ऐसा नहीं है। ‘पुरस्कार’, ‘दासी तथा गुंडा’ आदि में इतिहास का प्रयोग किया गया है जबकि ‘मछुआ बड़ा’ और ‘छोटा जादूगर’ में सामाजिक विषमता को उभारा गया है। अधिकतर कहानियों में कथा सूत्र की क्षीणता दृष्टिगोचर होती है। लेकिन ‘दासी’ एवं ‘सालवती’ आदि कहानियों में अनावश्यक अंश भी कम नहीं है। भावुकता की स्फीति कहानी को प्रतिघातित करती है। इन दोषों के होते हुए भी प्रसाद की कथन भंगिमा और चारित्रिक सृष्टि कहानियों को अविस्मरणीय बना देती है। प्रसाद का शिल्प प्रायः ‘ग्राम’ कहानी से लेकर ‘सालवटी’ तक एक समान रहा है और इसका अनुकरण नहीं हो पाया है।
प्रसाद की शैली में लिखी गई हृदयेश और विनोद शंकर व्यास की अनेक कहानियां असफल रही हैं। उनके शिल्प के संबंध में डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल ने लिखा है, “हिन्दी कहानी साहित्य में प्रसाद जी एक ऐसे कहानीकार हैं जिनकी कहानी भावों की अनुवर्तिनी रही है। शिल्प की अनुवर्तिनी नहीं।”
उनकी हास्य एवं विनोद से भरी हुई कहानियां ‘चांद’ में ‘दुबे जी की चिट्ठियां’ के रूप में प्रकाशित हुई थीं। उन्होंने लगभग 300 कहानियां लिखीं। जो ‘कल्पमंदिर’, ‘चित्रशाला’ आदि में संग्रहित हैं।
कहानी की प्रथम पंक्ति ही पाठक के हृदय को पकड़कर बैठ जाती है और जब तक वह पूरी कहानी को पढ़ नहीं लेता है उसे छोड़ती नहीं है तथा जिसने एक बार कहानी पढ़ लिया वह ‘उसने कहा था’ वाक्य को आजीवन विस्मृत नहीं कर पाता है। भाव, विचार, शिल्प तथा शैली आदि सभी दृष्टियों से यह कहानी एक अमर कहानी है। गुलेरी की दूसरी कहानी ‘सुखमय जीवन’ भी पर्याप्त रोचक एवं भावोत्तेजक है।
इसमें एक अविवाहित युवक के द्वारा विवाहित जीवन पर लिखी गई पुस्तक को लेकर अच्छा विवाद खड़ा किया गया है। जिसकी परिणति एक अत्यंत रोचक प्रसंग में हो जाती है। ‘बुद्धू का कांटा’ भी अच्छी कहानी है।
उन्होंने अपनी कहानियों में भावनाओं एवं मनोवृत्तियों का चित्रण अत्यंत सरल एवं रोचक शैली में किया है।
उनकी कहानियों ‘वीभत्स’ एवं ‘कुरूपता’ को भी स्थान मिल गया है किन्तु उग्र का उद्देश्य जीवन की कुरूपता का प्रचार करना नहीं था अपितु कुरूपता का समूल अंत करना था।
उनके कहानी संग्रह ‘दोजख की आग’, ‘चिंगारियां’, ‘बलात्कार’ तथा ‘सनकी अमीर’ आदि प्रकाशित है।
इन कहानीकारों के अतिरिक्त द्वितीय चरण के अन्य कहानीकार रामकृष्ण दास, विनोद शंकर व्यास के नाम भी उल्लेखनीय हैं।
घटनाओं की अपेक्षा उन्होंने चरित्र-चित्राण तथा शैली को अधिक महत्व दिया है। इनकी कहानियों के संग्रह ‘वातायन’, ‘स्पर्धा’, ‘पाजेंब’, ‘फांसी’, ‘एक रात’, ‘जयसंधि’ तथा ‘दो चिड़िया’ आदि हैं।
इस निजता की बनावट बड़ी जटिल है। इसीलिए इनकी कहानियों में लेखक की वैचारिकता, अनुभव, अध्ययन, तटस्थता, मानवीय प्रतिबद्धता आदि का बड़ा ही जटिल सहअस्तित्व दिखाई पड़ता है। इस जटिल सहअस्तित्व का परिणाम शुभ-अशुभ दोनों है। एक ओर वे इसके चलते ‘रोज’ जैसी अच्छी कहानी लिखने में समर्थ एवं सफल सिद्ध हुए हैं, वहीं दूसरी ओर घोर बौद्धिकता से परिपूर्ण रचनाएं भी उन्हेंने की हैं। ‘रोज’ में एक रस और यांत्रिक ढंग से जीवन जीने का संदर्भ अति सहजता किंतु तीखेपन के साथ चित्रित हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि अज्ञेय मनोविज्ञान के किसी सिद्धांत के प्रतिपादन हेतु कहानी लिख रहे हैं।
यशपाल, रांगेय राघव, अमृत लाल नागर एवं बेचन शर्मा ‘उग्र’ सामाजिक समस्याओं का समाधान प्राप्त करना तथा उसी में जूझते रहने का क्रियाकलाप करने का श्रीगणेश मुंशी प्रेमचंद ने किया था। सामाजिक समस्याओं का समाधान प्राप्त करने में यशपाल, रांगेय राघव, अमृतलाल नागर एवं बेचन शर्मा ‘उग्र’ उनके अनुगामी रहे हैं।
यशपाल इन प्रतिबद्ध रचनाकारों में अग्रगण्य थे। यशपाल का अनुभव संसार अति व्यापक तथा वैविध्यपूर्ण है। एक ओर मध्यवर्गीय जीवन की विसंगति, असहायता और यातना को व्यक्त करने वाली ‘परदा’, ‘फूलों का कुरता’, ‘प्रतिष्ठा का बोझ’ आदि कहानियां है। दूसरी ओर श्रमशील विश्व के संघर्ष और शोषण तंत्रा की विरोधी कहानियां हैं, जिनमें ‘राग’, ‘कर्मफल’, ‘वर्दी’ तथा ‘आदमी का बच्चा’ महत्वपूर्ण कहानियां हैं।
पुरातन मूल्यों, अप्रासंगिक रूढ़ियों और नैतिक निषेधों को तिरस्कृत करने का उनका ढंग वैयक्तिक है। धारदार व्यंग्य उनकी अभिव्यंजना का सर्वाधिक सबल अस्त्रा है। यशपाल में जहां कथ्यगत समृद्धि है वहीं शिल्पगत प्रभाव भी है। कुछ प्रगतिवादी कहानीकारों की तरह उनकी कहानियों में शिल्प का अवमूल्यन नहीं दिखलाई पड़ता है।
उनकी कहानियों पर टिप्पणी करते हुए हृषिकेश ने लिखा है – “वह इतनी सपाट और आत्मीय हैं कि पढ़कर चिंता नहीं होती, न खेद होता है, न आश्चर्य न जिज्ञासा और न ही व्यामोह, केवल तरल अनुभूति देने वाली अश्क की कहानियां अन्वेषण तो करती हैं अन्वेषक नहीं बनाती और पाठक के समक्ष आत्म निर्णय का संचार नहीं करती।” अश्क की बहुत सी कहानियों पर यह टिप्पणी सटीक बैठती है।
इन कहानीकारों के अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक कहानीकारों में भगवती प्रसाद वाजपेयी तथा पहाड़ी का नाम भी उल्लेखनीय है। प्रगतिवादी कहानीकारों में भैरव प्रसाद गुप्त तथा अमृत राय का भी कहानी साहित्य को प्रमुख योगदान है।
हिन्दी कहानी साहित्य में नएपन का प्रारंभ ‘पूस की रात’, ‘नशा’ तथा ‘कथन’ जैसी कहानियों से हो चुका था। सन् 1950 ई. तक आते आते कहानी के कथा शिल्प में पर्याप्त परिवर्तन हो चुका था। नएपन की यह प्रवृत्ति सन् 1956.57 ई. में आंदोलन का रूप ग्रहण कर चुकी थी। डॉनामवर सिंह उन आलोचकों में से हैं जिन्होंने नई कहानी के प्रवक्ता की भूमिका निभाई है। कहानी के नववर्षांक सन् 1956-58 में प्रकाशित उन लेखों से इस आंदोलन को अति बल मिला।
नई कहानी उस समय लिखी गई जब कहानीकारों में देश की स्वतंत्रता को लेकर संशय की भावना का उदय हो रहा था। मोह भंग की पृष्ठ भूमि का निर्माण हो रहा था। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के विभाजन के फलस्वरूप बड़े पैमाने पर मूल्य संक्रमण तथा मूल्य-विघटन का परिवेश तैयार हो गया था। राजनीतिक पृष्ठभूमि में भी सेवा, त्याग, करुणा, सत्य, प्रेम आदि गांधीवादी मूल्य कड़ी आजमाइश में पड़ गए थे।
डॉ. भगवान दास वर्मा का कथन है, “परंपरावादी जीवन-दर्शन की असारता, भारतीय संस्कृति की नए युग के संदर्भ में निरर्थकता, स्वतंत्रता प्राप्ति और भ्रम भंग की अवस्था, जीवनादर्शों की अनिश्चितता, व्यक्ति जीवन, अकेलेपन एवं अजनबीपन एहसास आदि अनुभूत सत्यों के अनेक स्तरीय संदर्भों के परिपाश्र्व पर नई कहानी विकसित हो रही है।