समाजवाद जिनके नस-नस में थी वे संत हैं बी.एन. मंडल

समाजवाद जिनके नस-नस में थी वे संत हैं बी.एन. मंडल

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बी. एन. मंडल की आक्रामकता ने देशभर के सर्किट हाउस का ताला जनप्रतिनिधियों के लिए खुलवाया,बदले में 9 माह जेल में रहना पड़ा ये कीमत इन्होंने चुकाया।

इतिहास गवाह है कि “वक्त की मांग पर, वक्त की कोख से, वक्त के अंधेरे को चीरने के लिए वक्त का सूरज निकलता है, जो अपनी किरणों से वक्त के अंधेरे को चीरकर एक इतिहास का सृजन करता है। यह सृजन आने वाले वक्त के लिए उदीयमान सूरज की तरह होता है। यह इतिहास का चक्र है जो अपनी सास्वत गति से चलता है। ऐसे ही इतिहास को गढ़ा भूपेंद्र नारायण मंडल जी ने।

भूपेंद्र नारायण मंडल परिवर्तन और पराक्रम की उर्जा से लबरेज़ दिखते हैं। इन्होंने भारतीय इतिहास को समझने, पौरुष को ललकारने की जो लकीरें खींची इससे लम्बी तो क्या बराबर की भी लकीर कोई नहीं खींच पाया।भूपेंद्र बाबू इतिहास में एक ऐसे सूरज के रूप में हमारे बीच आदर्श की प्रतिमूर्ति और प्रेरणा के संबल के रूप में प्रतिष्ठापित हैं। ये एक महान राजनीतिक योद्धा और सामाजिक संत थे। भारत की वैदिक संस्कृति में व्यापक विद्रूपता, अंधविश्वासों और भ्रष्ट आचरण ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया जिसे श्रमण संस्कृति के नाम से जाना जाता है, इसी संस्कृति की कोख से महावीर, बुद्ध, कबीर, नानक, रैदास, पैरियार, रामास्वामी, ज्योतिबा फूले, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, डॉ राम मनोहर लोहिया, भूपेंद्र बाबू जैसे महान संत विचारक उभरकर समाज को नई दिशा, उर्जावान प्रकाश देने आये। ऐसे महापुरुषों की एक लंबी सूची है जिन्होंने शानदार परंपरा है जो धार्मिक आंदोलन के दौर से गुजर कर सामाजिक सुधार का शंखनाद करता हुआ समाजवादी आंदोलन को जन्म दिया। समाजवाद के इसी प्रस्फुटन ने जाति-वर्ग विभेद के विद्रूपता को ललकार कर भारत में नये इतिहास का सृजन किया।समाजवाद के इतिहास में भूपेंद्र नारायण मंडल को हम सबसे उपर पाते हैं। बीसवीं सदी के प्रमुख काल 1 फरवरी 1904 कोसी के तांडव से पीड़ित तत्कालीन भागलपुर जिला वर्तमान मधेपुरा जिला अंतर्गत रानीपट्टी गांव में जय नारायणन मंडल के घर समाजवादी संत भूपेंद्र बाबू का जन्म हुआ। वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे सूत्र वाक्य के अनुयाई थे। भूपेंद्र बाबू के पूर्वज धार्मिक प्रवृत्ति के थे, इसका प्रमाण है कि तत्कालीन संत लक्ष्मीनाथ गोसाई द्वारा रानीपट्टी में ठाकुरबाड़ी की स्थापना की गई थी। भूपेंद्र बाबू का परिवार वैष्णव था। उन्हीं के बताए आदर्श से प्रेरित होकर सदावर्ती जीवन जीने का संकल्प लिया था, जो समाजवाद का पहला सोपान माना जा सकता है। या फिर कहें कि यही अंकुर बाद में बटवृक्ष बनकर उभरा। डॉक्टर लोहिया ने अपनी पुस्तक “समाजवाद का इतिहास” में लिखा कि समाजवाद वाले धार्मिक आंदोलन से गुजरकर सामाजिक सुधार आंदोलन से होते हुए राजनीतिक जीवन में प्रवेश करता है तब ये पूर्ण रूप से मानव समाज को उद्वेलित करता है। संपन्न परिवार में जन्म होने के कारण भूपेंद्र बाबू के समक्ष तत्काल आजीविका की कोई समस्या नहीं थी। देश प्रेमियों के लिए उस समय वकालत सबसे सम्मानजनक स्थान माना जाता था। उन्होंने इमानदारी के साथ मनुष्यता और सामाजिकता का दामन कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने अपने बैरिस्टरी जीवन में हमेशा प्रयास किया कि वादी और प्रतिवादी दोनों आपस में मिल बैठकर मामला सुलझा लें और व्यक्ति मुकदमावादी से बचें। यही राजनीतिक जीवन का मजबूत आधार बने। समाजवाद के विचार धारा को मजबूत बनाने में अपने बैरिस्टरी जीवन का भी भरपूर प्रयोग किया। ताकि सामाजिक तानेबाने में आ रहे गिरावट को रोका जा सके और पक्षपात, घृणा, शोषण के शिकार यह समाज इन कुरीतियों से उबर कर सक्षम समाज बन देशहित में अपना योगदान दे सकें। स्वाधीनता के बाद 19 37 में अंतरिम सरकार का गठन अवश्य हुआ किंतु उसके अधिकार सीमित थे। मुंबई के कांग्रेसी अधिवेशन में 7 अगस्त 1942 को “भारत छोड़ो और करो या मरो” का प्रस्ताव पारित हुआ, 2 दिन बाद 9 अगस्त को कांग्रेस के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई, गांधीजी भी गिरफ्तार हुए और नेतृत्व की कमान स्वयं समाजवादियों ने थामी। सारे देश में शतक सूरत आंदोलन शुरू हो गया जनता बगावत पर उतर चुकी थी। 13 अगस्त के दिन मधेपुरा झंडा फहराने का नेतृत्व कर रहे थे उसी दिन उन्होंने वकालत के पेशे से सरकारी लाइसेंस को फाड़ दिया और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी का संकल्प लिया। तमाम सरकारी कार्यालयों और सरकारी कामकाज बाधित कर दिया। उस दिन कई लोगों की गिरफ्तारी हुई और नेतृत्व की कमान समाजवादियों ने संभाली। आजादी के बाद उत्तर बिहार विशेषकर कोसी अंचल में उन्होंने व्यापक सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक आंदोलन चलाया। इस दौरान कोई भी गांव ऐसा नहीं था जहां वे स्वयं नहीं गए। उन्होंने जमीदारी प्रथा का भी मुखर विरोध किया। ऐसे कई प्रसंग हैं जब उन्होंने छोटे किसान और भूमिहीन मजदूरों को जमींदारों के शोषण से मुक्त करवाया। इनके अप्रत्याशित प्रयासों से ही 1952 में मधेपुरा टी.पी. कॉलेज की स्थापना हुई। काॅलेज की स्थापना इस क्षेत्र के लिए शैक्षणिक उत्थान की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि थी। 1952 में संपन्न पहले विधानसभा चुनाव में भूपेंद्र बाबू सोशलिस्ट पार्टी की ओर से चुनाव लड़े, उस चुनाव में यद्यपि बीपी मंडल से हार गए। किंतु इनकी सक्रियता में कोई कमी नहीं आई। किंतु एक उल्लेखनीय उपलब्धि यह रही की भागलपुर दरभंगा सुरक्षित क्षेत्र से किराय मुशहर लोकसभा के चुनाव जीत गए। विधानसभा चुनाव में हार गये किंतु किराए मुशहर को जीत दिलाकर एक इतिहास रच दिया। 1957 में विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी बने और मंडल जी को हरा दिया विधानसभा में यद्यपि यह अपनी पार्टी के सदस्य थे फिर भी कांग्रेसी सरकार की जनविरोधी नीतियों का हमेशा विरोध करते थे। विधानसभा के सदस्य के रूप में इनकी ऐतिहासिक उपलब्धि हमेशा याद की जाती है। उस समय सर्किट हाउस सरकारी अधिकारियों के लिए सुरक्षित था, इन्होंने इसका जबरदस्त विरोध किया। तत्कालीन सरकार इनके विरोध से इतना चिढ़ गई कि इन्हें जेल भिजवा दिया गया। 9 माह जेल में बंद रहे। इसके बाद जनप्रतिनिधियों के लिए सर्किट हाउस के द्वार हमेशा के लिए खुल गए। 1959 के तमिलनाडु के पार्टी अधिवेशन में इन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। 1962 के आम चुनाव में सहरसा संसदीय सीट से इन्होंने जीत दर्ज की। कांग्रेसी इस हार को पचा नहीं पाए और येन केन प्रकारेण चुनाव को रद्द घोषित करवा दिया। 1964 में हुए चुनाव में उनकी जीत हुई। किंतु इस बार उन्हें पराजित घोषित कर दिया गया। लोकसभा के छोटे से कार्यकाल में भी उन्होंने अपने विपक्षी तेवर दिखाया, राष्ट्रपति के अंग्रेजी में दिए अभिभाषण का जबरदस्त विरोध किया। राष्ट्रभाषा हिंदी एवं अपनी मातृभाषा अंगिका व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रबल पक्षधर थे। यह भाषित प्रतिबद्धता कालांतर में राजसभा में उनकी कई भाषाओं में दिखाई देती है। 1966 और 1972 में दो बारा राज्य सभा के लिए चुने गए अपने कार्यकाल में उन्होंने तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अपने विचार रखे। कांग्रेसी लोकतांत्रिक जन विरोधी नीतियों के विरुद्ध हमेशा मुखर रहे।.*समाजवादी राजनीति के कुशल प्रहरी भूपेन्द्र नारायण मंडल*बकौल जेम्स फ्रीमैन क्लार्क, “A politician thinks of the next election. A statesman, of the next generation”. अर्थात्, एक राजनीतिज्ञ अगले चुनाव के बारे में सोचता है, पर एक दूरदर्शी राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में। भूपेन्द्र नारायण मंडल ऐसे ही समृद्ध सोच के एक विवेकवान राजनेता का नाम है। जाति नहीं जमात की राजनीति के पुरोधा, बिहार के पहले सोशलिस्ट विधायक (1957), 1962 में बिहार के सहरसा से चुनकर लोकसभा पहुंचे प्रखर सांसद व सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष (1959) रहे। बी. एन. मंडल (1 फरवरी 1904 – 29 मई 1975) की जन्मतिथि है। कुनबापरस्त व कॉरपोरेटी राजनीति एवं अनसोशल सोशलिस्ट्स (असमाजिक समाजवादियों) की लगातार बढ़ती तादाद के दौर में नैतिकता से संचालित मूल्यपरक राजनीति की ज़रूरत आज हमें हर मोड़ पर महसूस हो रही है। आज की व्यक्तिवादी राजनीति, जहां दल और नेता प्रायः एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं बी.एन. मंडल द्वारा राज्यसभा में 1969 में दिया गया भाषण बरबस याद आता है।*जनतंत्र में अगर कोई पार्टी या व्यक्ति यह समझे कि वे जबतक शासन में रहेंगे, तब तक संसार में उजाला रहेगा, वह गया तो सारे संसार में अंधेरा हो जाएगा, इस ढंग की मनोवृत्ति रखने वाले, चाहे कोई व्यक्ति हो या पार्टी, वह देश को रसातल में पहुंचाएगा* … हिंदुस्तान में (सत्ता) से चिपके रहने की एक आदत पड़ गयी है, मनोवृत्ति बन गई है। उसी ने देश के वातावरण को विषाक्त कर दिया है।जब 1957 में सोशलिस्ट पार्टी के इकलौते विधायक के रूप में बी एन मंडल विधानसभा पहुंचे, तो आर्यावर्त ने फ्रंट पेज पर एक कार्टून छापा, जिसमें एक बड़ा अंडा दिखाते हुए अख़बार ने लिखा कि सोशलिस्ट पार्टी ने एक अंडा दिया है।लोहिया के बेहद क़रीबी रहे भूपेन्द्र बाबू की रुचि कभी सत्ता समीकरण साधने में नहीं रही, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए जनांदोलन खड़ा करने में उनकी दिलचस्पी रही। आज के पोस्टरब्वॉय पॉलिटिक्स के लोकप्रियतावादी चलन व रातोरात नेता बनकर भारतीय राजनीति के क्षितिज पर छा जाने के उतावलेपन के समय में बी एन मंडल का जीवनवृत्त इस बात की ताकीद करता है कि उनमें बुद्ध की करुणा, लोहिया के कर्म व उसूल की कठोरता एवं कबीर का फक्कड़पन था। चुनावी तंत्र की शुचिता व जनहित में नेताओं की मितव्ययिता पर ज़ोर देते हुए चुनाव के दौरान वे बैलगाड़ी से क्षेत्र भ्रमण करते थे जो सिलसिला जीवनपर्यंत चला। हर दौर में चुनाव लड़ने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती रही है। पर संचय-संग्रह की प्रवृत्ति, दिखावे और फिज़ूलखर्ची की प्रकृति न हो, तो कम पैसे में भी चुनाव लड़ा और जीता जा सकता है। इसके लिए नेता का अंदर-बाहर एक होना ज़रूरी है।संसद में सार्थक और रचनात्मक विपक्ष का इन्होंने निम्न स्तर पर जीने वाले लोगों के हितों के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे अपने चिंतन और आचरण में यह सदैव प्रतिबद्ध समाजवादी बने रहे। 29 मई 1975 को इनका हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया। इस प्रकार देश ने सच्चे समाजवादी को सदा- सदा के लिए खो दिया। अपनी पैतृक गांव रानीपट्टी के निकटवर्ती कांगड़ा गांव में उनका निधन हुआ था। मधेपुरा में उनके नाम पर भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय स्थापित है। आज भी तमाम समाजवादी लोग उन्हें श्रद्धा पूर्वक याद करते हैं।भूपेंद्र नारायण मंडल समाजवादी नेता थे। कांग्रेस विरोधी थे। समाजवादियों के विरुद्ध रचे जा रहे षड्यंत्र का वाकया है कि ललित नारायण मिश्र को दो-दो बार भूपेंद्र बाबू हराये मगर उस वक्त चुनाव आयोग के इशारे पर इनकी जीत रद्द कर दी गई।’जनतंत्र में अगर कोई पार्टी या व्यक्ति यह समझे कि वह जब तक शासन में रहेगा तब तक संसार में उजाला रहेगा, वह गया तो सारे संसार में अंधेरा हो जाएगा, इस ढंग की मनोवृत्ति रखने वाला, चाहे कोई व्यक्ति हो या पार्टी, वह देश को रसातल में पहुंचाएगा।’ भूपेंद्र नारायण मंडल ने यह बात 60 के दशक में राज्य सभा में कही थी। बीजेपी के अमित शाह कहते हैं कि उनकी पार्टी 50 साल राज करेगी। कर सकती है। जहां 10 साल से ज़्यादा कर चुकी है, वहीं जाकर देख लें कि क्या तीर मार लिया है। मगर भूपेंद्र नारायण मंडल ने यह बात तब की कांग्रेस को सुनाई थी। बिहार में बी पी मंडल हुए, जिन्हें लोग मंडल आयोग के कारण जानते ही हैं, मगर इस भूपेंद्र नारायण मंडल को आज की पीढ़ी कम जानती होगी! उनके नाम पे एक किताब है जो आजकल के युवाओं को जरूर पढ़ना चाहिए।

भूपेंद्र नारायण मंडल का जीवन और कार्य

1904 के 1 फरवरी को मधेपुरा जिले के रानीपट्टी गांव में जन्म

शिक्षा एम.ए, एल.एल.बी

1942 भारत छोडो आन्दोलन में हिस्सेदारी के कारण जेल यात्रा

1952 टी पी काॅलेज मधेपुरा की स्थापना

1957 समाजवादी (सोशलिस्ट) पार्टी की टिकट पर मधेपुरा विधानसभा क्षेत्र से विधायक निर्वाचित।

सर्किट हाउस में जनप्रतिनिधि के ठहराव की व्यवस्था के लिए सदन में लड़े और सरकार को झुकना पड़ा, सर्किट हाउस का द्वार जनप्रतिनिधियों के लिए खुला।

1959 समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अघ्यक्ष निर्वाचित।1962 सहरसा लोकसभा क्षेत्र से ललित नारायण मिश्र को हराया।(चुनाव रद्द)

1964 में पुनः निर्वाचित

1966 राज्यसभा सदस्य निर्वाचित।

1972 पुनः राज्यसभा सदस्य निर्वाचित।

1975 29 मई को मधेपुरा के टेंगराहा गांव में दिल का दौरा पडऩे से निधन।

लेखक जवाहर निराला सामाजिक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं साथ ही श्री कृष्ण पारिषद बिहार, पटना के मीडिया प्रभारी हैं और भूपेंद्र नारायण मंडल जयंती आयोजन समिति के संयोजक हैं।

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